कोरोना नामक वैश्विक संकट की घड़ी में प्रत्येक मनुष्य नित नया संघर्ष कर रहा है। आज प्रकृति के सामने असहाय, बेबस मानव के सामने अनदेखे डर के साये में जीने के सिवाय कोई विकल्प भी तो नहीं। यह मानव की आदिम प्रकृति है कि वह सारे भौतिक मार्ग बंद होने पर ईश्वर की शरण में जाता है। आज भी यही हो रहा है। लोगों की दान, धर्म, कर्मकांडों आदि में रुचि बढ़ रही है। 'डूबते को तिनके का सहारा' की तर्ज पर लोग धर्म में राहत ढूँढ रहे हैं। कुछ लोग आक्रोश में भरकर धर्माचार्यों को कोस रहे हैं। पूछ रहे हैं कि कहाँ हैं शंकराचार्य? आपदा की घड़ी में क्या कर रहे हैं? अगर वाकई इनमें कोई शक्ति है तो ये इस आपदा को दूर क्यों नहीं करते? क्यों नहीं इस महामारी से जनता को बचाते? कुछ तो मठ मंदिरों और शंकराचार्यों की संपत्ति जब्त करने की माँग कर रहे हैं क्योंकि ये समाज के लिए अनुपयोगी है।
तर्कों में तो दम प्रतीत हो रहा है पर अगर विश्व की महामारियों के इतिहास पर नजर डालें तो ये प्रकृति की अनदेखी से उपजी हैं। मानव का मनमाना आचरण इसके मूल में है। भूकंप, सुनामी, बाढ़, सूखा और तमाम महामारियों के पीछे मानव का विज्ञान जनित अभिमान है।
धर्माचार्य तो सदियों से प्रकृति की शरण में रहने की बात कर रहे हैं और त्रय ताप से बचने के उपाय बता रहे हैं। वेदादि धर्मग्रंथ इन उपायों से भरे पड़े हैं। आज समय है कि भारतवासी न सही तो कम से कम सनातनी ही कुछ प्रश्न स्वयं से पूछें। क्या आज तक हमने शंकराचार्यों द्वारा दिखाये मार्ग का अनुसरण किया? क्या हमने कभी किसी शंकराचार्य का यथोचित सम्मान किया? क्या मनमाना आचरण करने से पहले हम शंकराचार्यों से पूछने गये थे, जो आज आपदा के समय उनका मुँह जोह रहे हैं? क्या कभी हमने अपने धर्मग्रंथों को पढ़ने का प्रयास किया? क्या कभी हमने अपने धर्मग्रंथों को श्रद्धा भाव से देखा? हम तो इन्हें पोंगापंथी का नाम देकर स्वयं को आधुनिक और शिक्षित दिखाने का ढोंग करते रहे। आज जब हम अपना ही बोया काट रहे हैं तो धर्म पर आक्षेप क्यों?
एक और हास्यास्पद तर्क कुछ तथाकथित बुद्धि के ठेकेदारों की ओर से रखा जा रहा है कि शंकराचार्यों सहित समस्त सनातनी धर्माचार्यों और सारे मठ मंदिरों की संपत्ति जब्त कर ली जाये और इस संपत्ति का उपयोग देशहित में किया जाय। तर्कशास्त्र के इतिहास में शायद ही कभी इससे ज्यादा दारुण माँग उठी हो। ये माँग उठाने वाले वे लोग हैं जो न तो कभी किसी मंदिर के लिए आस्थावान रहे, न ही उन्होंने कभी किसी मंदिर में दान किया। शंकराचार्यों का विरोध तो ये लोग जैसे अपना एकमात्र कर्त्तव्य समझते हैं। इन्हें एक बार इतिहास पर दृष्टि डाल लेनी चाहिए कि मंदिरों में स्थित विग्रहों को पाषाण मात्र मानकर उन्हें तोड़ने वालों का क्या हश्र हुआ? आज की आपदा, जिसके आगे मानवता और उसकी समस्त उन्नति विवश हो गई है, भी इसी का प्रतिफल है। विकास और विस्तार के नाम पर सिद्ध मंदिरों को हानि पहुँचाकर हमने विनाश को न्यौता दे दिया है। अब कहीं दैव के अधीन हो हमने संपत्ति जब्त करने जैसा कदम उठाया तो? परिणाम की कल्पना से ही सिहरन होने लगती है। वैसे जहाँ तक शंकराचार्यों की संपत्ति की बात है तो उनके दंड, कमंडल, वस्त्र और धर्मग्रंथ जब्त करने से मिले धन से कितनों का पेट भरेगा, ये तो सुझाव देने वाले जानें। पर हाँ, धर्माचार्यों की नजर अगर टेढ़ी हो गई तो बुद्धि के इन बाजीगरों के पापों का घड़ा अवश्य भर जायेगा। वास्तविकता तो यह है कि संन्यासियों और शंकराचार्यों के पास तो वैराग्य और आशीर्वाद के सिवा कोई संपत्ति ही नहीं और देश को आज इसी की आवश्यकता आ पड़ी है।
डा. दीपिका उपाध्याय, आगरा
हिन्दी दैनिक उमेश वाणी समाचार पत्र(सिद्धार्थ नगर उत्तर प्रदेश)
Saturday, 11 April 2020
आपदा की घड़ी में धर्म पर आक्षेप क्यों?
उमेश प्रताप सिंह और रवि अग्रवाल ने पेश की मानवता की मिसाल
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