देश अगर मर जाए कहो फिर जिंदा कौन रहेगा जिंदा रह भी गया उसे फिर जिंदा कौन कहेगा। देश और देशवासियों के संबंध को निरुपित करती किसी कवि की ये पंक्तियाँ मर्मस्पर्शी हैं। देश मात्र भौगोलिक सीमाओं की परिधि से बंधा भूखण्ड नहीं है। वह तो देशवासियों की पहचान है, संस्कृति और परंपराओं की थाती को संभालकर रखने वाला जीवंत परिदृश्य है। देश व्यक्ति की पहचान है, इसीलिए सदैव व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर देशहित में सोचने की बात कही जाती है। लेकिन जब वाकई देशहित में कुछ करने का समय आता है, तब वह परिदृश्य दूसरा ही हो जाता है। देशसेवा का दम्भ भरने वाले मुठ्ठी भर लोग देश के सच्चे हितचिंतकों को बड़ी सहजता और सजगता से देश का विरोधी सिद्ध कर देते हैं। यह आज से नहीं हो रहा है, जब से मनुष्य ने धरती पर सर्वप्रथम इतिहास रचा, तब भी देश के हितचिंतकों और देश की आड़ में अपने स्वार्थ साधने वालों के बीच संघर्ष चल रहा था। खलिल जिब्रान की एक कहानी याद आती है। सत्य और असत्य दोनों बहनें नदी पर नहाने गयीं। असत्य पहले नहा ली, तो वह सत्य के कपड़े पहनकर चली गयी। जब सत्य नहाकर निकली तो विवश होकर उसे असत्य का रुप धारण करना पड़ा। वहीं से सत्य-असत्य के रूप में लोगों को धोखा होना प्रारंभ हो गया। यह कहानी आज भी प्रासंगिक है। असत्य स्वयं को सत्य के आवरण में ही ढंककर प्रस्तुत करता है। कमोबेश यही स्थिति देश के संदर्भ में है। राष्ट्रहितों की रक्षा के शोर में राष्ट्रहित ही दबकर रह गया है। आज राष्ट्र के मुद्दे गौण हो गये हैं और देशभक्ति का दिखावा प्रमुख। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि आज देशभक्ति का प्रमाण फेसबुक या वाट्स एप की डी पी से मिलता है। समसामयिक घटनाओं की जानकारी हो या न हो, डी पी पर उसका चित्र लगाकर हम स्वयं को राष्ट्रभक्त सिद्ध करने में जुट जाते हैं। घटना की तह में जाने के स्थान पर, सत्य के अन्वेषण के स्थान पर हम कुछ विद्वेषात्मक, उत्तेजक शब्दों पर रीझकर अनर्गल कहने-सुनने लगते हैं। वर्तमान समय में जिस तेजी से राष्ट्र का परिदृश्य बदल रहा है, राजनीति संसद से निकलकर गली-कूचों में फैल चुकी है, असत्य का शोर कानों को फोड़े डाल रहा है तब राष्ट्र के हितों को पहचानना ही सच्ची राष्ट्रभक्ति है। दुःखद यह है कि अब धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र की तो छोड़िए, लोग बेसिरपैर के मुद्दों के आधार पर समूहों में बँट गये हैं। स्वयं को शक्तिशाली दिखाने की होड़ में, समाज में दबदबा बनाने की चाहत में ऐसे लोग देश और समाज दोनों को हानि पहुँचा रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि एकमात्र देशभक्त होने का जैसे लाइसेंस मिल रहा है। सबसे दारुण पक्ष यह है कि आम जनता की वोट देने के बाद भी कोई भूमिका नहीं या कहें अधिकार नहीं। कैसी विडंबना है कि धर्म संबंधी निर्णय लेते समय धर्माचार्यों से कोई राय तक नहीं ली जाती, यदि वे कुछ बोलें भी तो उन्हें चुपचाप बैठकर संन्यासी जीवन जीने की सलाह देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों की ओर से दी जाती है। शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन करते समय शिक्षाविदों को किनारे रख अपनी इच्छानुसार नये ताजे शिक्षाविद् बनवा लिए जाते हैं। ऐसे में देश के बारे में निर्णय लेते समय जनता की तो सुने कौन? देखा जाए तो इन परिस्थितियों के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी जनता ही है जो बिना सोचे समझे मदारियों के हाथों नाच रही है। वे लोग, जो तय करते हैं कि देश कौन चलाएगा और जो तय करते हैं कि आज देश की जनता किस मुद्दे पर बहस करेगी, देश के सच्चे हितैषी हैं या नहीं, यह तय करने का समय आ गया है। आधुनिकता के नाम पर देश की परंपरा को तहस-नहस करने, मनगढ़ंत इतिहास तैयार करने और अतीत के डरावने किस्सों को दोहराकर डराने वालों से मुक्ति किसी भी सभ्य समाज के विकास के लिए आवश्यक है। समय आ गया है कि अंधविश्वास से मुक्ति पाई जाए। अब हमें स्वयं सत्य के अन्वेषण का प्रयास करें, इन सामाजिक मदारियों से अपने भविष्य को बचायें और प्रत्येक जन-कल्याण के मुद्दे पर मौन रहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से मुक्ति पायें। डा. दीपिका उपाध्याय, आगरा।
हिन्दी दैनिक उमेश वाणी समाचार पत्र(सिद्धार्थ नगर उत्तर प्रदेश)
Tuesday, 19 May 2020
आखिर किसे है देश से सरोकार
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