Friday, 1 May 2020

अर्थव्यवस्था के लिए घातक होगी राहत नीति !!

अभी हमारा देश की अर्थव्यवस्था ‘राहत पैकेज’ के आधारित ही चल रही है। आश्चर्य तक होता है कि देश की आजादी के 73 सालों के बाद भी देश की जनता को ‘राहत’ की आवश्यकता क्यों पड़ रही है ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि अभी तक लागू हुई विकास योजनाओं का लाभ किसको मिला? सरकार को अब अध्ययन करना चाहिए कि क्या वास्तव में दी जाने वाली राहतंे पात्र हाथों में जा रही है या फिर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही है! सरकार को एक ही बिन्दु पर कार्ययोजना बनाकर काम करने ही देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था में शामिल करने की आशा की जानी चाहिए! यह विचार करना चाहिए कि राहतों में आंवटित होने वाली राशि का लाभ देश की अर्थव्यवस्था को मिलेगा अथवा व्यर्थ जा रहा है? मेरे इस प्रश्न पर सरकार यह भी कह सकती है, जनता की जरुरत का ध्यान रखना सरकारों का नैतिक दायित्व है लेकिन सरकार का दायित्व यह भी बनता है कि सरकारें करों की वसूली में मानवता दृष्टिकोण बरते, सरकार के निर्णय एवं कार्य उत्पीड़न की श्रेणी में न आएं!! कर सम्बन्ध्ति नीतियां सरल और सुगम बनें। सरकार का यह भी दायित्व बनता है कि वह देश के ऐसे वर्ग को राहतें प्रदान करे जो देश की अर्थव्यवस्था को विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बनाने में भागीदार तो बन ही रहे हैं साथ ही सहायक सि( हो रहे हैं।
आइये चलते हैं आज बात करते 1947 से अभी तक की कुछ योजनाओं पर और राजस्व से प्राप्त आय के बंटवारे के साथ योजनाओं एवं विकास पर खर्च करने के बारे में। इसके इहतहास में जानने के लिए हमको कुछ बिन्दुओं पर अध्ययन करना होगा।
भारत का समग्र विकास बनाम योजना आयोग


चलें 1947 की ओर। 1947 से 2017 तक, भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार नियोजन की अवधारणा पर था। इसको योजना आयोग ;1951-2014द्ध और नीति आयोग ;2015-2017द्ध द्वारा विकसित किया गया। योजना आयोग ;1947द्ध की स्थापना के बाद देश में विकास की योजनाओं को पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से निष्पादन और कार्यान्वित किया जाने लगा। बता दें कि योजना आयोग पदेन अध्यक्ष के रुप में प्रधान मंत्री और एक कैबिनेट मंत्री स्तर का नामित उपाध्यक्ष होता था। योजना आयोग के अंतिम उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया आयोग रहे। 12वीं योजना ने मार्च 2017 में अपना कार्यकाल पूरा किया। चैथी योजना से पूर्व राज्य संसाधनों का आवंटन पारदर्शी और उद्देश्य तंत्र के बजाय योजनाब( पैटर्न पर आधारित थी। तत्पश्चात योजना आयोग ने 1969 में गाडगिल फार्मूला अपनाया गया। आवंटन का निर्धारण करने के लिए तब से सूत्र के संशोधित संस्करणों का उपयोग किया गया है। 2014 में केन्द्र में निर्वाचित नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने योजना आयोग के विघटन की घोषणा की है, और इसका स्थान नीति आयोग ;नेशनल इंस्टीट्यूशन फाॅर ट्रांसफाॅर्मिंग इंडिया के लिए एक संक्षिप्त नामद्ध थिंक टैंक द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है।
वित्त आयोग


भारतीय संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत 1951 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा वित्त आयोग की स्थापना की गई थी। इसका गठन भारत की केंद्र सरकार और व्यक्तिगत राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संबंधों को परिभाषित करने के लिए किया गया था। तत्कालीन कानून मंत्रीडाॅ. बी. आर. अंबेडकर इन असंतुलन को दूर करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच राजकोषीय अंतर को पाटने के कई प्रावधान भारत के संविधान में दिए। संविधान के अनुसार, आयोग का गठन हर पांच साल में नियुक्त किया जाता है और इसमें एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य होते हैं।  
हमको ध्यान देना होगा कि 2011-12 की एक रिपोर्ट पर, सुरेश तेंदुलकर पैनल की सिफारिशों के आधार पर देश में गरीबी रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में 27 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 33 रुपये तय की गई थी, लेकिन बाद में भाजपा सरकार को सौंपी गई एक रिपोर्ट में आरबीआई के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ पैनल ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति दिन 32 रुपये और कस्बों और शहरों में 47 रुपये खर्च करने वालों को गरीब नहीं माना जाना चाहिए। 


लेकिन आज मेरे मन में कुछ प्रश्न उभर रहे हैं कि 12 पंच वर्षीय योजनाओं के साथ 15 वित्त आयोग लागू होने के साथ ही सांख्यिकी मंत्रालय के अन्तर्गत नेशनल सैम्पल सर्वे संगठन की रिपोर्ट आने के बाद भी देश में गरीब और अमीरी को परिभाषित क्यों नहीं किया जा सका? केन्द्र और राज्य सरकारों ने देश के गरीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों की सुरक्षा के लिए पैकेज की घोषणा की, वह हमारी फिलहाल तो हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव डालेगा, इस पर भी व्यापक अध्ययन होना चाहिए। 
यदि  बात की जाए किसानों की, तो देश में कुछ भी प्राकृतिक या अन्य घटना हो जाए तो सबसे पहले आवाज उठती है कि देश के अन्नदाता किसानों के हित में पैकेज की बात की, लेकिन सत्य को न स्वीकारना हमारी राजनीतिक मजबूरी भी होती जा रही है। 
किसान फार्म आय बीमा योजना 


तत्कालीन केंद्र सरकार ने 2003-04 के दौरान फार्म आय बीमा योजना तैयार की और कहा कि एक किसान की आय के दो महत्वपूर्ण घटक उपज और मूल्य हैं। अतः सरकार ने ‘फार्म आय बीमा योजना’ लागू करते हुए एकल बीमा पाॅलिसी के माध्यम से सुनिश्चित किया कि बीमित किसान को एक गारंटीकृत आय मिल सके। भारत में कृषि सूखे और बाढ़ जैसे जोखिमों के लिए अतिसंवेदनशील है। किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाना और अगले सीजन के लिए उनकी )ण पात्रता सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस उद्देश्य के लिए, भारत सरकार ने पूरे देश में कई कृषि योजनाओं की शुरुआत ‘प्रधानमंत्री बीमा योजना’ भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 13 फरवरी 2016 को शुरु की गई।


केन्द्र सरकार की अच्छी योजना लागू की गई, प्रशंसनीय है। लेकिन इस योजना के लाभ और लागू करने पर प्रश्नचिन्ह् लगा हुआ है जिसको प्रत्येक दल और चिंतक नजाअंदाज करते हैं अथवा उनको वह सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते। आज देश में कृषि दो प्रकार से की जा रही है। पहले तो इस तथ्य पर जाना होगा कि किसान कौन है? आज ग्रामीण क्षेत्र में युवा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर को छोड़ नहीं रहा है। वह शिक्षा प्राप्त करने के बाद क्या कृषि कार्य में अपने को लगा रहा है? देखा यह देखा जा रहा है कि आज ग्रामीण क्षेत्र में अधिकतर कृषि कार्य ‘बटाई’ पर किया जा रहा है। बटाई पर करने का अर्थ है कि जिसके नाम कृषि भूमि है वह अपनी भूमि ठेके पर दे देता है। ठेके लेने वाला पूरे वर्ष कृषि कार्य करता है और कृषि भूमि के स्वामी को एक किनश्चित राशि का भुगतान करता है, स्पष्ट है ठेकेदार को लाभ हो अथवा घाटा, भूमि स्वामी को कोई सरोकार नहीं। अब ऐसे में बीमा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अन्तर्गतकिये जाने वाला बीमा किसके नाम होता है? दूसरा प्रश्न यह है कि प्राकृतिक आपदा हो जाने पर सरकार द्वारा दिया जाने वाला मुआवजा के भुगतान किसको किया जाता है? सबसे मुख्य प्रश्न आयकर की दृष्टि से यह भी है कि इस प्रकार से ठेके लेने पर क्या वह ठेके पर कृषि उत्पाद से प्राप्त आय कृषि आय मानी जानी चाहिए? प्रश्न यह भी है कि केन्द्र सरकार द्वारा दिया जाना वाला ‘किसान सम्मान निधि’ का लाभ किसको मिल रहा है? क्या यह कृषि उत्पाद का ठेके किस परिभाषा में शामिल होने चाहिए,व्यापार की अथवा कृषि की? प्रश्न यह भी है कि सरकार द्वारा जब ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ के अन्तर्गत बीमा करवा दिया जाता है तो फिर मुआवजा की आवश्यकता क्यों? 
अब आवश्यकता है देश में इस विषय पर गहरी चर्चा की कि कब तक सरकारें राहत पैकेज बांटे और यदि आज भी आपदा की स्थिति में राहत देने की आवश्यकता है तो प्रश्न यह भी उठना चाहिए कि अभी तक देश में लागू विकास योजनाओं का देश की जनता पर कितना लाभ हुआ और कितना समग्र विकास हुआ और देश की जनता का ‘जीवन स्तर’ की। अब आजादी के 73 साल बाद में देश में हमेशा से ही गरीब-गरीब, किसान-किसान का हो-हल्ला होता है। कैसी बिडम्बना है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अथवा सरकार कभी भी देश के उस वर्ग के बारे में कभी नहीं सोचती कि जो देश को राजस्व देने में राष्ट्रीय भागीदारी निभा रहा है उसको कभी राहत अथवा प्रोत्साहन की आवश्यकता है अथवा नहीं? सच कहें तो सरकार कभी भी ऐसे करदाता वर्ग को अच्छी दृष्टि से नहीं देखती।


मैं देश की राजनीतिक पार्टियों के दिवालियापन की संज्ञा दें तो गलत नहीं होगा, अभी तक किसी भी दल ने यह नहीं सोचा या सोचना नहीं आता कि कोई भी राहत देना, कोई भी कल्याणकारी योजना चलाना, सरकार कर्मचारियों का वेतन देने के लिए राजस्व कहां से आता है अथवा आएगा? सभी दल एकसुर में राहत देने की बात करते हैं। अभी भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से बुित ही आसानी से गरीबांे को पैकेज देने की मांग कर दी, और बहुत ही सरलता से कह दिया कि मात्र 65 हजार करोड़ का पैकेज देना होगा, यह सुझाव देते हुए रघुराम राजन ने कहा कि अभी हमारे देश की अर्थव्यवस्था 200 लाख करोड़ अर्थात 2.72 करोड़ डाॅलर ;2018 की जी.डी.पी. के अनुसारद्ध तो हम इतना पैकेज आसानी से दे सकते हैं। सुनकर ताज्जुब हुआ उस व्यक्ति पर जो देश के सर्वोच्च बैंक का मुखिया रह चुके हो। यदि यह बात कोई राजनीतिक नेता कहता तो मान लेते कि ऐसी क्या राजनीतिक मजबूरी है पूर्व गवर्नर की। इन पूर्व गवर्नर ने कभी अपनी सेवा के दौरान भी यह कभी नहीं कहते नहीं सुना कि देश के विकास में सर्वाधिक योगदान देने वाले वर्ग का हित का भी ध्यान रखना होगा ताकि देश की आर्थिक विकास के साथ जी.डी.पी. का प्रतिशत बढ़ सके।
दुःखद स्थिति ही कहा जाएगा कि सरकार ने कभी भी सक्षम बनाने के लिए प्रयास नहीं किया। आज तो नहीं तो कल सरकार को मजूबर होना होगा, अन्यथा किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक ही सि( होगा।



         -पराग सिंहल
      (लेखक कर जानकारी पाक्षिक पत्रिका के प्रकाशन है और एसोसिएशन आॅफ टैक्स पेयर्स एंड प्रोफेशनल्स के राष्ट्रीय महासचिव।)


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