Saturday, 6 March 2021

आजादी के सात दशक उपरांत गरीबी और हमारा मुल्क

 लेखकः सतीश भारतीय

आज के इस मन्वंतर में जब हम हमारे मुल्क की सरजमीं पर उतरकर देखते है तो हमें नजर आता है कि इमारतों, मशीनों तथा दुरूस्त सूरत-ए-हाल वाले इन्सानों के मध्य गरीबी के आलम में जीते अजहद चेहरे भी है यहाँ जिनका मुस्तकबिल नियति पर अवलंबित है या फिर उन्हें उनकी मेहनत का मुनासिब हक नहीं मिलता है जब सड़कों पर सोते हुए चेहरे दिखते हैं तथा झोपड़पट्टी वाले इलाकों से गुजरते वक्त जरूरतों के अभाव में गुजर-बसर करती आवाम दिखती हैं तो हमें असली संघर्षशील भारत की तस्वीर नजर आती है जिससे मस्तिष्क में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि भारत में आजादी के सात दशक उपरांत भी गरीबी में क्यों जीने को मजबूर है आवाम और भारत में गरीबी आज भी प्रमुख मुद्दा क्यों बना हुआ है?  

जब हमारा मुल्क आजाद हुआ था तब ₹1 के सदृश 1 डॉलर था लेकिन अब डॉलर और रुपए में अतीव दूरत्व है। आज हमारे देश के एक सरकारी नौकरी करने वाले अधिकारी का मासिक वेतन लाखों में होता है.वहीं हमारी मुफलिस आवाम की प्रति व्यक्ति  दैनिक आय ग्रामीण अंचल में ₹200 और शहर में 300 या ₹400 होती है अगर मासिक आय की बात की जाए तो लगभग 5000 से 12000 के बीच होती है तो आप तसव्वुर कर लीजिए कि इतनी कम आय में एक गरीब व्यक्ति अपने परिवार का अच्छा भरण-पोषण कैसे कर सकता है और बच्चों को बेहतर  तालीम कहां तक दे सकता है. यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि यह आय ,,ऊंट के मुंह में जीरे के समान है,, 

एक समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नारा दिया था,, गरीबी हटाओ,, उनके यह अल्फाज हर किसी के कानों तक पहुंचे. लेकिन गरीबी के आंकड़े आज तक ज्यादा अच्छे नहीं हुए है। 

आज से ही नहीं बल्कि आजाद भारत के पहले से लेकर हम गरीबी में जी रहे आज के दौर में बहुत से बच्चे आर्थिक तंगी की वजह से यहां वहां काम करके अपनी पढ़ाई जारी रखते हैं और उन्हें आगे पढ़ने के लिए खुद काम करना पड़ता है कुछ बच्चे तो ऐसे होते हैं जो पारिवारिक आर्थिक समस्याओं के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं ग्रामीण अंचल से लेकर भारत के कोने-कोने में आज भी बाल श्रम बहुत हो रहा है अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटे-छोटे बच्चे काम करने को मजबूर हैं जिन बच्चों के हाथों में किताबें होनी चाहिए उनके हाथों में चाय की केतली, मलवे का तसला, आदि कुछ दिखाई देता है। 

किसी ने कहा है भारत एक अमीर देश है जिसमें बहुत सारे गरीब रहते है. इस कथन की सत्यता की पुष्टि के लिए हमारे पास उदाहरण है अंतरराष्ट्रीय राइट्स ग्रुप ऑक्सफैम के वह रिपोर्ट जिसमें दावा किया गया है कि भारत में संपत्ति के सृजन का 73 फीसदी हिस्सा महज 01 फीसदी अमीरों के पास है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में एक वर्ग ऐसा है जो पूरी शान और शोहरत से जी रहा है जिसकी आबादी बहुत ही कम है वहीं दूसरी ओर एक विशाल वर्ग ऐसा है जिसकी छोटी से छोटी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही। 

वर्ष 2014 में आई रंगराजन समिति की सिफारिशों के अनुसार हमारे गांव में ₹32 और शहरों में ₹47 प्रतिदिन से ज्यादा कमाने वाले गरीब नहीं है यहां पर विचारणीय यह है कि इतने कम रुपए में एक छोटे से भी परिवार का भरण- पोषण कहां तक संभव है? 

2019 में आई संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 37 करोड़ लोग गरीब है. जिनकी तादाद 2005-06 में 64 करोड़ थे. वहीं विश्व बैंक के आय के मानकों के अनुसार हिंदुस्तान में अभी लगभग 81.2 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। 

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि भारत में 50 हजार करोड़ के आस-पास 40 फीसदी खाना बर्बाद हो जाता है.

यहाँ गौर करने योग्य मेरी यह दो पंक्ति है

एक वो अन्नदाता है जो जमीन से समेट लेता है दाने-दाने को.

और अक्सर लोग फेक देते हैं थाली से बचे हुए खाने को

भारत में गरीबी से निजात पाने के लिए सरकार को उच्च शिक्षा व्यवस्था करनी चाहिए एवं शिक्षा की दोहरी प्रणाली खत्म करनी चाहिए तथा विकास के अभ्युदय की प्रक्रियाएं जमीनी स्तर से प्रारंभ करनी चाहिए. जिसमें गरीब व्यक्ति के संसाधनों की पूर्ति का ध्यान रखा जाए और गरीब व्यक्तियों के अंदर सृजनात्मकता के विकास के कारगर  प्रयास किये जाएं इसके साथ अमीर व गरीब व्यक्ति को कंधे से कंधे मिलाकर साथ चलना निहायती अपरिहार्य है तब यह हमारा मुल्क गरीबी के दलदल से उभर पाएगा और राष्ट्रीय एकता कायम होगी। 

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