राकेश दूबे सहसम्पादक
सिद्धार्थनगर।नन्ही गौरैया बचपन से ही हमारे जीवन और दिनचर्या के बेहद क़रीब रही है।खपरैल का घर आंगन के कोने मे खपरैल के नीचे घोंसला और जोडे मे कभी कभार बच्चों के साथ फुदकती गौंरया, घर में एक आवश्यक और आत्मीय उपस्थिति। वह घर के सहन में भी थी मुंडेर पर भी थी छत पर भी, आंगन में भी, कमरे में भी, खिड़की पर भी, बिस्तर में भी और धुंधली स्मृतियों मे भी फुदक रही है। घर से बाहर तक,आंगन से सड़क तक और रिश्तों के बीच की खाली जगहों में हमारी नैसर्गिक मासूमियत का विस्तार रही है गौरैया। एक गीला-सा अहसास और एक परिचित चूं चूं चीं चीं का संगीत रही हैं।आज गौरया दिवस पर स्मृतियों के वीरान पडे झाड झंखाड़ के धूल पोंछने पर कुछ यादें शेष रह गई हैं।ओह बीते सालों मे कितना कुछ बदल गया।बेतरतीब शहरीकरण,अंध औद्योगीकरण और संचार क्रांति के इस पागल दौर में गौरैया को अब ढूंढना पड रहा है कभी कभार एक या जोडे मे बैठी गौरैया मेरी तरह ही उदास बिजली के तारों पर बैठी नजर आती है। ग्रामीण क्षेत्रों मे झुंड में अपनी मोहक उपस्थिति दर्ज कराने वाली शहरों और कस्बों से उड चली। शायद इसीलिए घरों से वह नैसर्गिक संगीत लुप्त होता जा रहा है जो हमारे अहसास की जड़ों को सींचा करता था। कहते हैं कि गौरैया से खूबसूरत और मुखर आंखें किसी भी पक्षी की नहीं होती। जब कभी गौरैया की मासूम आंखों में झांककर देखता हूं, जाने क्यों उस मधुर हरीतिमा की याद आती है जिसे लगता है, देह बदल कर वह हमेशा मेरे आसपास ही है। विकास की गति विनाश के तरफ आहिस्ता आहिस्ता खींच रहा है।कंकरीट के जंगल मे जीवन घुमावदार बन चुका है।इतिहास अपने आपको दुहराता है बचपन नहीं।काफी क्रूरताओं के बीच भी पृथ्वी पर जीवन और गौरैया आज भी है।
'विश्व गौरैया दिवस' की आप सबको बधाई। आईए गौरैया को बचाएं। पृथ्वी पर मासूमियत को बचाए
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